الفصــل العاشــر
من أي قسم وجهة
يُقال إنّ البارئ كثير ؟ +
المقدمة : خطة هذا الفصل
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 | 281 | فإذ قد بيّنّا ما معنى الواحد ، | |
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 | وكم أقسامه ، وما هي ، وبأيها(1) يصح نعت العلة الأولى ، وكم جهاته ، ومن أيها(2) يصح أن توجَد(3) العلة(4) بها ؛ + + | 
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 | 282 | و[إذ] قد ثبت وجوب(1) الوحدانية والكثرة معا في العلّة ، + | |
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 | وكانت للكثرة(2) أقسامٌ مساوٍ(3) عددُها عدد أقسام الواحد ؛ + + | 
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 | 283 | فقد يجب أن نسلك ، | |
| ب 15 ﺠ | 
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 | في الفحص عن صحّة ما يصح ، وبطلان ما يبطل منها(1) ، السبيل التي سلكناها في* الفحص عن أقسام الواحد وجهاته بعينها . + | 
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 | + هذا الفصل يحلله PERIER من ص 136 (الفقرة الأولى) إلى 137 (الفقرة 2) . | 
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 | 146-189) والتاسع (رقم 242-280) . | |
| 281- | (1) | ب ق : وما بها | 282- | (1) | ب ق : وجود | 
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 | ط : وما بها | 
 | + راجع الفصل الثامن (رقم 213-241) | |
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 | (2) | ق ك : انها | 
 | (2) | ب ق : الكتره | 
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 | (3) | ب ق : توجد | 
 | (3) | ب ق ك : و | 
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 | ك : يوجد | 
 | + + راجع الفصل السابع (رقم 190-212) | |
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 | (4) | ب ق : (أضاف) الأولى | 283- | (1) | ب ق ك : بها | 
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 | + + ان الرقم 281 يعود فيقدم مخطط الفصلين السادس (رقم | 
 | + راجع الفصل التاسع (رقم 242-280) الذي يعطينا اذا مخطط هذا الفصل العاشر | ||
 
| أولا - من أي قسم يقال إن البارئ كثير | |||
| 1- الكثرة الحدّيّة هي الموجودة في البارئ | |||
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 | 284 | فنقول : إنّ للإنسان(1) أن يتبيّن(2) استحالة وجود الكثرة | |
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 | بمعنى الجنس والنوع والنسبة(3) والمتّصل(3) وغير المنقسم ، | 
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 | بالبرهان الذي بيّنّا به استحالة وجود | |
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 | هذه الأقسام من أقسام الواحد . | 
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 | 285 | وذلك أنّ(1) ، من بياننا(2) استحالة وجود العلّة(3) واحدًا جنسًا ، | |
| ق 18 ﺠ | 
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 | يتبيّن(4) أنه يستحيل * وجودها أجناسا كثيرة . | 
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 | إذ كان وجودها أجناسا كثيرة | |
| ط 200 ظ | 
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 | موجبا وجود معنى* الجنس الواحد فيها(5). | 
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 | 286 | وكذلك(1) القول في سائر الباقية(2) ؛ | |
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 | حتى يصح ، من أقسام الكثرة فيها ، نظير القسم من الواحد الذي صحّ فيها(3) ، | 
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 | وهو الكثرة الحَدَيَة(4) ، | |
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 | التي هي نظيرة الواحد الحَدّيّ الذي صحَ فيها . | 
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 | 287 | فالكثرة إذًا(1) الموجودة في العلّة ، | |
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 | هي الكثرة الحدّيّة . | 
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| 284- | (1) | ب ق ك : الانسان | 
 | (3) | ق : هذه العله العله (sic) | 
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 | (2) | ب : يبين | 
 | (4) | ق ك : يبين | 
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 | ط : يتبين | 
 | (5) | ب ق : منها | 
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 | د : يبين | 286- | (1) | ب : ولدلك | 
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 | (3) | ب ق ك : والمتصل والنسبة | 
 | (2) | ب : الباقته | 
| 285- | (1) | ق : (ناقص) | 
 | (3) | ب ق ك : منها | 
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 | (2) | ط : بياننا | 
 | (4) | ب ق ك : الحدفيه | 
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 | ق : بيانا | 287- | (1) | ب ق ك : ادن | 
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 | ك : بيانا | 
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| 2- اعتراض | |||
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 | 288 | ولعلّ بعض من ينظر فيما قلناه الآن ، | |
| ك 19 ﺠ | 
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 | من*مُحبيَ المناقضة(1) وعاشقي المشاغبة، | 
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 | لِما(2) يتمثّله(3) ، في ظاهر قولنا هذا ، | |
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 | عند أول ما يجبهه(4) ورودُه على السمع ، | 
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 | قبل(5) إطالة النظر ، من(6) التقابل ، | 
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 | ويتخيّله(7) منه ، حين يبدهه وفودُه(8) على الذهن(9) ، | |
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 | قبل إجالة(10) الفكر ، من(11) التناقض ؛ | 
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 | 289 | يبادر إلى إمضاء القضاء(1) علينا ، | |
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 | متّهِمًا(2) ، مستقبحا(3) للفرحة(4) ، | 
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 | ومنتهزا للفرصة ، ومستغنما(5) للرخصة . | 
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| 288- | (1) | ب : المناقصه | 
 | (9) | ب ق ك : الدهن | 
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 | (2) | ب ق ك : بما | 
 | ط : اللان | |
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 | (3) | ط : يمثله | 
 | (10) | ط ك : احاله | 
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 | (4) | ط : يحبهه | 
 | (11) | ب ق : في | 
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 | ق : يجبهه | 289- | (1) | ط : العضا | 
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 | (5) | ق : (أضاف) مناظره (ثم شطبها) | 
 | (2) | ط : تهيما | 
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 | (6) | ب ق ك : في | 
 | (3) | ب ق ك : مستفحشا | 
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 | (7) | ب : ويتحيله | 
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 | ط : مستقبحا | 
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 | ق : ونيخيله (sic) | 
 | (4) | ق : للفرجه | 
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 | (8) | ب : وفوده | 
 | (5) | ومستغنما | 
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 | ك : وفوره | 
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| آ- العلّة واحد حَدّيّ وكثير حَدّيّ | |||
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 | 290 | فيقول(1): إنّك ، أيها الرجل ، | |
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 | لمّا(2) بحثتَ(3) عن القسم الذي يصح نعت العلّة به ، | 
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 | من أقسام الواحد ، | 
| ق 18 ظ | 
 | *أمْضى(4) بك برهانُك ، عند نفسك ، | |
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 | إلى أنه واحد(5) حدّيّ ، | 
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 | ومعناه هو أن يكون الحدّ | |
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 | الذي يُحَدّ به العلة ، واحدًا(6) + . | 
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 | 291 | وفي قولك هذا ، الذي أتيتَ(1) به الآن ، | |
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 | أوجبتَ أن يكون القسم الموجود(2) للعلة | 
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 | 
 | (من أقسام الكثرة) القسم الحدّيّ أيضا + . | 
| ط 201 ﺠ | 
 | *وهذا هو أن تكون(3) الحدودُ | |
| ب 15 ظ | 
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 | *التي تُحدّ(4) بها العلّة ، كثيرة . | 
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| 290- | (1) | ط : فيقول | 291- | (1) | ب : اثبت [= أثبتَّ] | 
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 | (2) | ك : لم | 
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 | ط : أتيت | 
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 | (3) | ب : بحث | 
 | (2) | ب ق ك : المولود | 
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 | ط : بحث ق : تجب | 
 | + راجع ما ورد سابقا في الارقام 284-287 | |
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 | ك : يجب | 
 | (3) | ط : يكون | 
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 | (4) | ب : فصنى | 
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 | ق ك : يكون | 
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 | ق ك : فمضى | 
 | (4) | ط : تحد | 
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 | (5) | ب : واجد | 
 | (5) | ك : يها (أي "تحديها") | 
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 | (6) | ب ق ك : واحد | 
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 | + راجع ما ورد سابقا في الرقمين 267 و 268 | 
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| ب- ينتج عن ذلك ضروب من الشناعات | |||
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 | 292 | فيلزمك لهذا(1) ضروب من الشناعات : | |
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 | 293 | أوّلها ، أن يجتمع(1) في العلة القسم من أقسام الواحد ، | |
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 | ومقابلُه من أقسام الكثرة ؛ | 
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 | وحقيقة المتقابلَين ألاّ يُوجَدا معاً في موضوع واحد . | 
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 | 294 | وآخر منها ، أن تكون العلّة ، | |
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 | من قِبَل أنّ حدّها(1) واحد ، ذاتاً واحدة(2) ، ومن قََبِل أنّ حدودها كثيرة ، ذوات(3) كثيرة . وهذا خلْف لا يمكن . | 
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 | 295 | وأيضا ، فلأنّ حدّها واحد ، | |
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 | 
 | يجب(1) ألاّ(2) تكون(3) حدودا كثيرة ؛ | 
| ك 19 ظ | 
 | إلاّ أنّك * قد أوجبتَ أنه(4) [كذا] حدود(5) كثيرة . | |
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 | 
 | فهو [كذا] حدود كثيرة ، وليس بحدود كثيرة . | |
| 
 | 
 | 
 | وهذا خلْف . | 
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| 292- | (1) | ب ق ك : لها | 295- | (1) | ب : تجب | 
| 293- | (1) | ق ك : تجتمع | 
 | (2) | ب ق ك : ان لا | 
| 294- | (1) | ق ك : جسدها | 
 | (3) | ب : يكون | 
| 
 | (2) | ب : (ناقص) من قبل ... حدها | 
 | (4) | ق : ان تكون | 
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 | 
 | ك : واحدًا | 
 | (5) | ق : حدودا | 
| 
 | (3) | ب ط ك : ذواتاً | 
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 | 
 
| ق 19 ﺠ | 296 | ومن(1) قِبَل أنّك أوجبتَ * أن تكونَ(2) حدودا كثيرة ، | |
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 | 
 | فليست حدّاً واحداً(3) ؛ | 
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 | 
 | إلاّ أنّك قد كنتَ(4) أوجبتَ أنها حدّ واحد ؛ | |
| 
 | 
 | فيلزمك أن يكون [كذا] حدّا واحدا ، وليس بحدّ واحد ؛ | |
| 
 | 
 | 
 | وهذا محال . | 
| 
 | 297 | فما لزم وضعُه هذا المحال ، | |
| 
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 | 
 | فهو(1) لا محالة محال . | 
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 | 
 | فوَضْعُك إذاً(2) أنّ العلّة واحدة(3) حَدّيّة | |
| 
 | 
 | 
 | وكثرة(4) حدّيّة ، محال . | 
| 3- الردّ على الاعتراض | |||
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 | 298 | ونحن نسأل(1) هذا المتسرٍّع(2) | |
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 | التثبُّت(3) لفهم ما يُعنيه(4) ، | |
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 | والتوقّفَ لعلم(5) مذهبنا فيه ؛ | |
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 | 
 | وتجاوزَ(6) لواحق ظاهر العبارة ، | |
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 | 
 | إلى حقائق ما إليه الإشارة . | |
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| 296- | (1) | ط : من | 298- | (1) | ب ق ك : نسل | 
| 
 | (2) | ب ط : يكون | 
 | 
 | ط : نسل | 
| 
 | (3) | ط : (ناقص) | 
 | (2) | ط ق ك : المتشرع | 
| 
 | (4) | ق ك : (ناقص) | 
 | (3) | ط : الثبت | 
| 297- | (1) | ط : هو | 
 | 
 | ق : التبتت | 
| 
 | (2) | ب ق ك : ادن | 
 | (4) | ب : نعينه | 
| 
 | (3) | ب : وحده | 
 | 
 | ط : نعينه | 
| 
 | 
 | ك : والحده | 
 | (5) | ب ق ك : لعام | 
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 | (4) | ق : وكترت | 
 | (6) | ب : ونحاور | 
| 
 | 
 | 
 | 
 | 
 | ط : وتحاور | 
 
| 
 | 299 | فإنه ، إن أسعفنا بمسألتنا(1) ، | |
| ط 201 ظ | 
 | 
 | * صارت منّةً منّا عليه ، وعادت(2) نعمةً من جهتنا لديه(3) . | 
| 
 | 300 | فلْيُعلم(1) أنّ الحدّ ، إذ هو قولٌ ما ، والقول مؤلَّف ، وكل(2) مؤلّف(2) فتألُّفُه(3) لا محالةَ من أكثر من جزء(4) واحد ، وكل جزء(4) من أجزائه يدلّ على معنى غير معنى غيره من أجزائه ، | |
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 | 301 | فهو لذلك يجتمع(5) فيه ، لا محالة ، المعنيان ، | |
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 | أعني الوحدة والكثرة . | 
|  | 
 | أمّا الوحدة ، فمن قِبَل جملته المتقوّم(1) (؟) بها(2) الوحادة ؛ | |
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 | وأمّا الكثرة ، فمن قِبَل أجزائه التي هي آحاده . | 
| ق 19 ظ | 302 | فقد ظهر إذاً(1) صدْق ما أدّت(2) إليه * براهينُنا(3) ووجوبُنا ، وزالت(4) عنّا شكوكُهُ وشُبَهُه . | |
| ثانيا- من أيّ جهةٍ يقال إنّ البارئ كثير | |||
| ب 16 ﺠ | 303 | فأمّا * الجهات التي يصحّ(1) وجود الكثرة للعلّة منها(2) ، فهي هذه : | |
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| 299- | (1) | ب : بمسلتنا | 301- | (1) | ب ق ك : المتفق | 
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 | ط : بمسلتنا | 
 | (2) | ب ق ك : منها | 
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 | ق ك : بمسكنتنا | 
 | 
 | ط : مها | 
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 | (2) | ق ك : وعاده | 302- | (1) | ب ق ك : ادن | 
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 | (3) | ب ق ك : اليه | 
 | (2) | ق ك : اردت | 
| 300- | (1) | ب : فليعلم | 
 | (3) | ق ك : براهينًا | 
| 
 | (2) | ط : (ناقص) | 
 | (4) | ب ق ك : وزال | 
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 | (3) | ط : فيالفه | 303- | (1) | ب ق ك : تصح | 
| 
 | (4) | ق : جزوء (sic) | 
 | (2) | ب : فيها | 
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 | (5) | ك : تجتمع | 
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 | 
 | 
 
| 1- جهة الفعل ، دون القوّة | |||
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 | 304 | إحداها ، جهة(1) الفعل ، دون القوّة | |
| ك 20 ﺠ | 
 | *وذلك أنّ القوّة ، كما بيّنّا(2) ، تحتاج(3) ، | |
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 | في إخراج ما فيها (وهو(4) ما هي قوّة عليه) إلى الفعل إلى علة تُخرجه إليه + | 
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 | 305 | فيلزم لذلك أن تكون ، | |
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 | للعلّة(1) التي لا علّة لها ، علّة . | 
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 | وهذا محال . | 
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 | 306 | فيلزم ، من استحالة ذلك ، | |
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 | وجوب نقيض ما لزم وضعُه هذا المحال ؛ | 
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 | وهو أن الكثرة(1) للعلّة بالقوّة . | 
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 | ونقيضه هو أنّه ليس الكثرة للعلّة بالقوّة(2) ، | |
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 | ويلزم هذا أن يكون بالفعل . | 
| ط 202 ﺠ | 
 | *فالكثرة(3) إذاً(4) للعلّة(5) ، | |
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 | 
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 | بالفعل(6) لا بالقوّة . | 
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| 304- | (1) | ط : (ناقص) | 306- | (1) | ك : (في الهامش) | 
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 | (2) | ق : بيننا | 
 | (2) | ب ق ك : (ناقص) ونقيضه هو ... بالقوة | 
| 
 | (3) | ط : يحتاج | 
 | (3) | ب ق ك : والكثره | 
| 
 | (4) | ط ق : وهي | 
 | (4) | ب ق ك : ادن | 
| 
 | + راجع ما ورد سابقا في الرقم 182 | 
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 | ب : (اضاف) بالفعل والكثرة اذن | |
| 305- | (1) | ط : العله | 
 | (5) | ب ق ك : بالفعل | 
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 | (6) | ب ق ك : للعله | 
 
| 2- جهة الذات ، دون العَرَض | |||
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 | 307 | وأخرى منها(1) ، جهة الذات أيضا ؛ | |
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 | وذلك أنه قد ثبت(2) أنها(3) بالحدّ كثيرة(4) ، إذ(5) الكثرة لازمة للحدّ ، من قِبَل أجزائه . | 
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 | 308 | وما يدل عليها أجزاء(1) الحدّ | |
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 | ذاتيّة للمحدود(2) ، لا محالة . | 
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 | فالكثرة الذاتيّة إذاً(3) واجبة(4) للعلّة . | |
| 3- جهة الحدّ ، دون الموضوع | |||
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 | 309 | وأمّا(1) وجوب جهة الحدّ(2) ، | |
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 | فقد تبيّن ذلك من كلامنا في أقسام الكثرة . | 
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| 307- | (1) | ب ق ك : معهما | 309- | (1) | ب ق ك : فاما | 
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 | (2) | ب ك : بينا | 
 | (2) | ب ق : العدد | 
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 | ق : بيننا | 
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 | (3) | ب ق : بها | 
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 | (4) | ب ق ك : كتير | 
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 | (5) | ب : ادا | 
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| 308- | (1) | ب ق : اخر | 
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 | (2) | ب ك : للحدود | 
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 | (3) | ب ك : ادن | 
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 | ق : (ناقص) | 
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 | (4) | ق : (أضاف) ادن | 
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